फौजी की "फैमिली"




एक फौजी भाई की राजस्थान के बोर्डर पै ड्यूटी लाग-गी । जाड्याँ (सर्दियों) के दिन आ गए, फौजी नै सोची अक परिवार तैं मिल्ले घणे दिन हो-गे, क्यूं ना आपणी "फैमिली" न हाड़ै आपणै धोरै बुला ल्यूं ।

उसनै घरां आपणे बाबू धोरै चिट्ठी लिक्खी - "बाबू, सर्दी शुरू हो-गी सैं, मेरी फैमिली नै भेज दे ।"

ईब भाई, बूढ़ा सोच में पड़-ग्या अक ये "फैमिली" के हो सै ? फिर उसनै अंदाजा लगाया अक उसनै जाड्याँ में फैमिली मंगाई सै, तै "फैमिली" का मतलब "रजाई" होवै सै ।

घर में कोई रजाई ना थी । बूढ़े नै चिट्ठी गिरवा दी - "बेटा, देख, तेरी फैमिली तै पाछले जाड्याँ में बाळकां नै पाड़ दी थी, अर तन्नै बेरा सै अक मैं तै सूं ऐं बिना फैमिली का । पर बेटा, तू कहै तै पड़ौस के भीम की फैमिली नै भेज दूँ, वा सै भी नई ए ।"




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